अध्यात्म, ध्यान और साधना का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना. यह चेतन मन की एक प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपनी चेतना बाह्य जगत् के किसी चुने हुए दायरे अथवा स्थलविशेष पर केंद्रित करता है. इसका अर्थ है ‘स्वयं को जानो.’ स्वयंको जाने बिना व्यक्त्वि विकास संभव नहीं होगा. यह सब ध्यान से संभव हो पाता है. इससे ही काया का उत्सर्ग हो सकता है. साथ ही बाह्य उपाधियों के प्रति ममत्व भाव का त्याग हो सकता है. इस्लिए ध्यान कारण है कायोत्सर्ग का और कायोत्सर्ग कारण है मोक्ष का. जो साधना आत्मा को मोक्ष से जोड़ती है वह साधना भी ‘योग’ ही कहलाती है. गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है. इसका अर्थ है भीतर की यात्रा.
आध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर. आत्मा के बाहर-बाहर हम यात्रा कर रहे हैं. अतीत से कर रहे हैं. कभी भीतर जाने का अवकाश ही नहीं मिला. हम मानते हैं दुनिया में जो कुछ सार है वह बाहर ही है भीतर कुछ भी नहीं. वास्तविकता यह है कि जो भीतर की यात्रा कर लेता है उसे बाहर का सत्य असत्य जैसा प्रतिभासित होने लगता है. जैसे दिन भर का थका हुआ पक्षी अपने घोंसले में आकर विश्राम करता है वैसे ही बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से त्रस्त आदमी कहीं विश्राम ले सके; कहीं शान्ति का अनुभव कर सके वह स्थान हो सकता है-केवल अध्यात्म, केवल भीतर का प्रवेश. साधना करते-करते अनुभव की चिन्गारियां उछलती है, अनुभव के स्फुलिंग बिखरते हैं, तब आदमी यह घोषणा करता है-बाहर निस्सार है, भीतर सार है. हमने भीतर को खोया-सब असार हाथ लगा. हमने भीतर को पाया-सब सार ही सार प्रतीत हुआ.
ध्यान और साधना का अर्थ है-गहराई में उतर कर देखना. जानना और देखना चेतना का लक्षण है. आवृत्त चेतना में जानने और देखने की क्षमता क्षीण हो जाती है. उस क्षमता को विकसित करने का सूत्र है – जानो और देखो. आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो, स्कूल मन के द्वारा सूक्ष्म मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो. पूरी साधना यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर है, ज्ञात से अज्ञात की ओर है. देखना साधक का सबसे बड़ा सूत्र है. जब हम देखते हैं तब सोचते नहीं है. जब हम सोचते हैं तब देखते नहीं है. विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है – देखना. आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएगे, विकल्प शून्य हो जाएंगे. हम जैसे-2 देखते चले जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं.
परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं . जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं, जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है. हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है – हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ? जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता. ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं. हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है. अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे. सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा. अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे. बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे.
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